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जानिए ब्रिटिश दौर के अंग्रेज़ अफ़सरों की खानपान से जुड़ी दिनचर्या, क्या क्या थी उनकी जरूरतें...

ब्यूरो रिपोर्ट-सुरेश सिंह 

प्रयागराज : ब्रिटिश राज के दौर में अंग्रेज़ अफ़सर के बंगले में मिलने वाली सुबह की चाय को छोटी हाज़िरी कहा जाता था, चाय के साथ टोस्ट या बिस्किट मिलता था छोटी हाज़िरी को बेड टी समझिए, छोटी हाज़िरी सुबह पांच बजे के क़रीब होती थी ख़ानसामा छोटी हाज़िरी में चाय लेकर हाज़िर होता था, छोटी हाज़िरी के बाद अंग्रेज़ मॉर्निंग वॉक पर निकल जाते और सुबह आठ बजे के क़रीब बड़ी हाज़िरी के लिए डाइनिंग हॉल में तशरीफ़ लाते थे, बड़ी हाज़िरी में करी ज़रूर होती थी बीफ़, गोटमीट, अंडे, हैम, फ़्रेश फ़्रूट और चावल वग़ैरह भी  इसमें शामिल होता था मतलब बड़ी हाज़िरी में भरपूर भोजन होता था, बड़ी हाज़िरी के कुछ आदाब होते थे ये नहीं कि बड़ी हाज़िरी के वक़्त रम पीने लग जाएं, बड़ी हाज़िरी में या तो ख़ून जैसी लाल वाइन क्लेरेट पीजिए या फिर बीयर पीजिए, लेकिन बड़ी हाज़री के वक़्त ख़ानसामा या बैरा ग्लास में बीयर नहीं डालता था, बीयर पीना है तो सीधे बॉटल से पीजिए, जैसे फिशिंग के वक़्त पीते हैं वैसे पीना होता था बड़ी हाज़िरी के वक़्त मग में बीयर पीना बदतमीज़ी मानी जाती थी और ये ब्रिटिश इंडिया के अफ़सरों के आदाब के ख़िलाफ़ था, जानकार अंग्रेज अफसरों की सख्ती और सनकीपन से अच्छी तरह वाकिफ हैं उनके आदाब के खिलाफ जाने वाले को वह क्रुरता के साथ दंडित किया करते थे ।

बड़ी हाज़िरी के बाद क़रीब एक बजे लंच होता था, अंग्रेज़ अफ़सर ऑफ़िस में रहते तो टिफ़िन में लंच आता और बंगले पर रहते तो वहीं लंच करते थे लेकिन लंच में बस ज़रा सा  चावल और करी, बाकी कुछ नहीं होता था, बड़ी हाज़िरी और लंच के बीच साहब की बेगम मतलब मेमसाहब की ड्यूटी होती कि वो सभी सेवकों को बुलाकर कल तक की बड़ी हाज़िरी में बनने वाली चीज़ों के बारे में निर्देश दें ताकि नौकर बाज़ार से सामान ख़रीदने निकल जाएं, रात में डिनर सात बजे के क़रीब होता था डिनर की शुरूआत सूप या मछली से होती थी, फिर रोस्टेड बीफ़ या मटन के साथ आप शेरी पी सकते थे या फिर चाहें तो बिटर्स भी ले सकते थे अंग्रेज अफसर उबले अंडे बीच में खाते रहते थे ताकि ड्रिंक का किडनी पर कोई  अधिक दुश प्रभाव नही  पड़े, इसी बीच तरह तरह की करी जो उस दिन बनी होती थी के साथ चावल, पुडिंग्स और फल वग़ैरह लिए जाते थे, किसी ज़िले में घूमने जाना होता तो कोशिश की जाती कि सिविल सर्वेंट की मेहमान नवाज़ी में ना रहें ।

वजह यह थी कि उनके यहां कसरत से फ़ाऊल और मुर्ग़ नहीं मिलता था, सिविल सर्वेंट ख़ुद ही खाकर ख़त्म किए रहते थे जहाँ होते आसपास के मुर्ग़ खा जाते, लिहाज़ा वो मटन ही खिलाते थे, पोर्क भी नहीं मिलता अगर कुक इंडियन होता तो कई बार तो बीफ़ भी नहीं मिलता था, किसी ज़िले में घूमने के दौरान बेहतर रहता कि नील कारखानों के अंग्रेज़ ज़मींदार या चाय के अंग्रेज़ प्लांटर या किसी अंग्रेज़ ज़मींदार के यहां रूका जाए, वहां मुर्ग़ ख़ूब मिलते थे मुर्ग़ उस दौर में बड़ी चीज़ थे मटन तो बहुत सस्ता मिलता था, सिविल सर्वेंट दौरे के समय कोशिश करता कि किसी हिंदू के यहां रूकने की मजबूरी ना आन पड़े वहां भी वजह यह थी कि उसके यहां मीट मिलने में परेशानी होती थी मुसलमान के यहां भी मेहमान ना होना भी अंग्रेज ठीक नही समझते थे, क्योंकि उसके यहां पीने में दिक्कत होती थी वो अक्सर इस हिदायत में रहते थे कि इन दोनों के यहां रुकने से बचा जाए ।

इनसे बस सलामी लेना ही ठीक है कहीं रूकने की जगह नहीं हो तो डॉक बंगलों, सरकारी भवन, नील कोठी, थानों, निरीक्षण भवनों पर रूका जाए क्योंकि यहां सब सुविधाएं मिल जाती थी या फिर झक मारकर अंग्रेज़ सिविल सर्वेंट का मेहमान बन जाता था, उस दौर में अंग्रेज अफसर अपनी शान में किसी भी तरह की गुस्ताखी को बर्दाश्त नहीं किया करते थे वह खुद भी इसके लिए सख्त और सचेत रहा करते थे ।

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