ब्यूरो रिपोर्ट-सुरेश सिंह
प्रयागराज : अंग्रेजों से आजादी मिलने के बाद लोकतंत्र के इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि एक दौर वह भी बन गया था जब बीहड़ यानी जंगली इलाकों से निकले फरमान पर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सियासत डोल जाती थी। चुनाव से पहले फरमान यही होता था कि वोट पड़ेगा हाथी पर, नहीं तो लाश मिलेगी घाटी पर, जैसे नारे गूंजते थे। औरैया, इटावा, बांदा, जालौन और चित्रकूट तक दुर्दांत डकैतों का सियासत में हस्तक्षेप रहा है, फिलहाल अब चुनाव में इन डकैतों का कोई नामलेवा नहीं है या तो इनके गिरोहों का सफाया हो चुका है या इनके सदस्य सलाखों के पीछे हैं, बताते चलें कि साल 1947 से पहले अंग्रेजी हुकूमत में अंग्रेजों ने पूरी तरह से डकैत और बदमाशों का सफाया करने के लिए शख्त कानून लागू किए थे। अंग्रेजी सरकार में डाकुओं की संख्या तेजी से घट गई थी अंग्रेज अपने हुकूमत काल में किसी भी डकैत और बदमाश को पनफने नहीं दिया, लेकिन क्रांतिकारियों के आंदोलन के आगे उन्हें झुकना पड़ा और देश छोड़कर जाना पड़ा, इसके बाद भारत पूरी तरह से आजाद हो गया और यहां पर हिंदुस्तान की हुकूमत आ गई। उसके बाद से डाकुओं की मंडली में तेजी से इजाफा हो गया, बदमाश माफियाओं, डाकुओं और बाहुबलियों के इशारे पर राजनीति को जाना जाने लगा, बताया जा रहा है सरकारों के ही संरक्षण में इन डाकुओं और बदमाशों को बढ़ावा मिलता था फिलहाल इनका आतंक 2014 के लोकसभा चुनाव तक समाप्त हो चुका था वहीं इस चुनाव के बाद से इन सबके भाग्य पर पूरी तरह से ग्रहण लग गया ।
उत्तर प्रदेश में चित्रकूट का नाम आते ही वो जंगल याद आ जाता हैं जहां श्रीराम ने वनवास के दौरान विचरण किया था। चुनावी दौर में डकैतों की वजह से इनकी याद ताजा हो जाती है डकैत ददुआ की 1982 से 2000 तक करीब 52 गांवों में तूती बोलती थी वह विधानसभा और लोकसभा चुनाव का रुख तय करता था जानकार बताते हैं कि पहले उसका हाथ कम्युनिस्ट पार्टी की पीठ पर के था, पर राजनीतिक गुरु के कहने पर उसने बसपा के पक्ष में माहौल तैयार करना शुरू कर दिया था, पाठा के जंगलों में हाथी दौड़ा करती थी साल 2004 में उसने दल बदल लिया और अपने पूरे परिवार को सपा की लाल टोपी पहना दी, भाई बाल कुमार पटेल, बेटा वीर सिंह पटेल और भतीजे राम सिंह पटेल ने साइकिल की सवारी कर सांसद, विधायक बन गए। उन दिनों बुंदेलखंड में मुलायम सिंह की राजनीति की फसल खड़ी हो गई थी इससे ददुआ और बसपा के बीच बैर का बीज पनप उठा, फिर दौर आया 2007 में विधानसभा चुनाव का जिसमें बसपा की सरकार बन गई ।
अब यही से ददुआ डाकू के खात्मे की उलटी गिनती शुरू हो गई। साल 22 जुलाई 2007 को एसटीएफ से मुठभेड़ के दौरान ददुआ का अंत हो गया, ददुआ के अलावा इनामी डकैत ठोकिया, रागिया, बलखड़िया, बबली कोल और गौरी यादव का भी फरमान चित्रकूट, बांदा, फतेहपुर, सतना, रीवा, पन्ना और छतरपुर तक चलता था। फरमान आते ही चुनावी माहौल बदल जाता था हालांकि अब पूरा इलाका दस्यु विहीन हो चुका है 2014 में लोक चुनाव डकैतों के दखल के बिना सम्पन्न हुआ था जिसमें लोगों ने खुलकर मतदान किया था एक बार फिर सरकारों ने वोटों का मोह छोड़कर अंग्रेजों की तरह काम करना शुरू कर दिया जिनका मकसद था कि अपराधियों और डकैतों का सफाया करके प्रदेश को भय मुक्त बनाना, तब से लेकर अब तक लोग ग्राम प्रधान से लेकर सांसद और विधायक तक के चुनाव में बिना डर के खुलकर मतदान कर रहे हैं।
बतादें कि उन दिनों मैदानी क्षेत्र भी डाकुओं से अछूते नहीं रह पाये जैसे फर्रुखाबाद, मैनपुरी, फतेहपुर, कौशाम्बी, प्रयागराज के कुछ क्षेत्र और एटा के मैदानी क्षेत्र भी डाकुओं के खौफ में चलते थे, साल 1970 से 1992 तक इनामी डकैत छविराम यादव की तूती बोलती थी चुनाव में सजातीय नेता के पक्ष में छविराम का फरमान आ जाता था। छविराम की फर्रुखाबाद की तत्कालीन मोहम्मदाबाद एवं एटा की अलीगंज क्षेत्र में खासी रुचि लगी हुई थी उसके मारे जाने के बाद पोथी यादव ने गैंग की कमान संभाली थी। वहीं मशहूर डकैत कलूआ यादव कायमगंज विधान सभा क्षेत्र में दखल देता था कानपुर देहात के भोगनीपुर और सिकंदरा के यमुना पट्टी का कुछ इलाका बीहड़ में आता है ।
यहां पर लगभग चार दसक पहले श्रीराम लालाराम और फूलन देवी के गिरोह का आना जाना लगा रहता था लेकिन इनके गिरोह का कोई दखल चुनावों में सामने नही आया है, डाकू मलखान सिंह का भी नाम इन्हीं चम्बलों बीहड़ों से निकल कर सामने आया था बताया जाता है 2009 तक चंबल में डाकुओं की हुकूमत चलती थी राजनीति में प्रत्याशी उनकी मदद लिया करते थे साल 2009 तक चंबल में डाकू साम्राज्य बना हुआ था पहले निर्भय गुर्जर, जगजीवन परिहार, राम आसरे पक्कड़, रामवीर सिंह गुर्जर, अरविंद गुर्जर, चंदन यादव, मंगली केवट, रघुवीर ढीमर जैसे बड़े डाकुओं का गिरोह सक्रिय थे बीहड़ से जुड़े हुए प्रत्येक गांव में डकैतों का दबदबा रहता था ।
कई बार मतदाताओं का वोट अपने पक्ष में करने के लिए प्रत्याशीयों द्वारा डकैतों से मदद लिया जाता था और वह चुनाव जीत भी जाते थे। निर्भय गुर्जर, जगजीवन परिहार और पहलवान गुर्जर जैसे डकैत जिन प्रत्याशी के पक्ष में फरमान जारी करते थे उसी को सबसे ज्यादा वोट मिलते थे निर्भर गुर्जर तो लेटर पैड पर फरमान लिखना था। वर्ष 1998 के चुनाव में भी राम आसरे और पक्कड़ में इटावा के प्रत्याशियों को जीतने का फरमान जारी किया था, बताया जा रहा है प्रत्याशी विजई भी हुआ था हालांकि 2009 के बाद डकैतों के इन गिरोहों का पतन होना शुरू हो गया था अब कोई भी दस्यु सरगना बीहड़ों में सक्रिय नहीं है।
केंद्र और प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद से सरकार ने अंग्रेजों की तरह गुंडों माफियाओं और डकैतों का सफाया कर दिया है अब लोग आतंक और भय से मुक्त होकर चुनाव में मतदान करते हैं लेकिन आजादी के बाद बीते दौर में चुनावी माहौल पर बदमाशों के आतंक का साया मंडराया करता था ।
Loksabha chunav 2024 : daku Bihadh dakait
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