रिपोर्ट- श्रीपाल
उन्नाव : समय के साथ सभ्यताएं मिट जाती किन्तु संस्कृत नहीं मिटती क्योंकि वह रोज अपना पुनराविष्कार करती रहती है तथा निरंतर कुछ नया जोड़ते हुए खुद को नवीनीकृत और परिष्कृत करती रहती है। परम्परा ये परिवर्तनशील संस्कृति का स्थिर हो चुका वह अतारकिक हिस्सा होती है जिन्हें हम बिना विचारे कर्मकांडों के रूप में दोहराते जाते हैं और इसी कारण यह यथा स्थित वादी रहती है, जिनके आगे देखने की दृष्टि एवं साहस मजहबों में होता है ही नहीं होता क्योंकि किसी बहती धारा को मोड़कर किसी अन्य मार्ग पर ले जाने में परेशानी बहुत उठानी पड़ती है और हम परेशान होना ही नहीं चाहते हैं ।इसके उपरांत भी परंपरा में अपने अस्तित्व को लेकर सदैव असुरक्षा रहती हैं। हमारा रहन-सहन खान - पान पहनावा, कला- दिशा सौंदर्य -बोध, लोकाचार, चिंतन, विवाह, आदि संस्कृत है जबकि शादी की पद्धति ,धार्मिक, अनुष्ठान दिनों के हिसाब से कार्य करना जैसे मंगलवार, बृहस्पतिवार, को नाखून, बाल आदि न काटना तथा कपड़े न धुलना यह सब परंपरा है।
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